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पा॒हि नो॑ अग्ने र॒क्षसः॑ पा॒हि धू॒र्तेररा॑व्णः । पा॒हि रीष॑त उ॒त वा॒ जिघां॑सतो॒ बृह॑द्भानो॒ यवि॑ष्ठ्य ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pāhi no agne rakṣasaḥ pāhi dhūrter arāvṇaḥ | pāhi rīṣata uta vā jighāṁsato bṛhadbhāno yaviṣṭhya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पा॒हि । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । र॒क्षसः॑ । पा॒हि । धू॒र्तेः । अरा॑व्णः । पा॒हि । रिष॑तः । उ॒त । वा॒ । जिघां॑सतः । बृह॑द्भानो॒ इति॑ बृह॑त्भानो । यवि॑ष्ठ्य॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:36» मन्त्र:15 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:10» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उस सभाध्यक्ष राजा से प्रजा और सेना के जन क्या-२ प्रार्थना करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (बृहद्भानो) बड़े-२ विद्यादि ऐश्वर्य्य के तेजवाले (यविष्ठ्य) अत्यन्त तरुणावस्थायुक्त (अग्ने) सब से मुख्य सबकी रक्षा करनेवाले मुख्य सभाध्यक्ष महाराज ! आप (धूर्तेः) कपटी अधर्मी (अराव्णः) दान धर्म रहित कृपण (रक्षसः) महाहिंसक दुष्ट मनुष्य से (नः) हमको (पाहि) बचाइये (रिषतः) सबको दुःख देनेवाले सिंह आदि दुष्ट जीव दुष्टाचारी मनुष्य से हमको पृथक् रखिये (उत) और (वा) भी (जिघांसतः) मारने की इच्छा करते हुए शत्रु से हमारी रक्षा कीजिये ॥१५॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को चाहिये कि सब प्रकार रक्षा के लिये सर्वरक्षक धर्मोन्नति की इच्छा करनेवाले सभाध्यक्ष की सर्वदा प्रार्थना करें और अपने आप भी दुष्ट स्वभाववाले मनुष्य आदि प्राणियों और सब पापों से मन वाणी और शरीर से दूर रहें क्योंकि इस प्रकार रहने के विना कोई मनुष्य सर्वदा सुखी नहीं रह सकता ॥१५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(पाहि) रक्ष (नः) अस्मान् (अग्ने) सर्वाग्रणीः सर्वाभिरक्षक (रक्षसः) महादुष्टान्मनुष्यात् (पाहि) (धूर्त्तेः) विश्वासघातिनः। अत्र धुर्वी धातोर्बाहुलकादौणादिकस्तिः प्रत्ययः। (अराव्णः) राति ददाति स रावा न अरावा रावा तस्मात्कृपणाददानशीलात् (पाहि) रक्ष (रिषतः) हिंसकाद्व्याघ्रादेः प्राणिनः। अत्रान्येषामपि दृश्यत इतिदीर्घः। (उत) अपि (वा) पक्षान्तरे (जिघांसतः) हन्तुमिच्छतः शत्रोः (बृहद्भानो) बृहन्ति भानवो विद्याद्यैश्वर्य्यतेजांसि यस्य तत्संबुद्धौ (यविष्ठ्य) अतितरुणावस्थायुक्त ॥१५॥

अन्वय:

पुनः तं प्रति प्रजासेनाजनाः किङ्किम्प्रार्थयेयुरित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे बृहद्भानो यविष्ठ्याग्ने सभाध्यक्ष महाराज त्वं धूर्तेरराव्णो रक्षसो नः पाहि। रिषतः पापाचाराज्जनात् पाहि। उत वा जिघांसतः पाहि ॥१५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सर्वतोभिरक्षणाय सर्वाभिरक्षको धर्म्मोन्नतिं चिकीर्षुर्दयालुः सभाध्यक्षः सदा प्रार्थनीयः स्वैरपि दुष्टस्वभावेभ्यो मनुष्यादिप्राणिभ्यः सर्वपापेभ्यश्च शरीरवचोमनोभिर्दूरे स्थातव्यं नैवं विना कश्चित्सदा सुखी भवितुमर्हति ॥१५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी सर्व प्रकारच्या रक्षणासाठी सर्वरक्षक, धर्माच्या उन्नतीसाठी इच्छा बाळगणाऱ्या सभाध्यक्षाची सदैव प्रार्थना करावी व स्वतः सर्व पापांपासून मन, वाणी, शरीराने दूर राहून दुष्ट स्वभावाच्या मनुष्यप्राण्यांपासूनही दूर राहावे. कारण या प्रकारे वागल्याशिवाय माणूस नेहमी सुखी राहू शकत नाही. ॥ १५ ॥